द्वापर की समाप्ति एवं कलिकाल के प्रारम्भिक समय में द्वारका से आये यदु राज वंशजों एवं मथुरा में पूर्व में ही शासन कर रहे श्री कृष्ण के संबंधियों के कारण ब्रज एक बार पुनः फलने फूलने लगा. श्री कृष्ण के प्रपोत्र ब्रजनाभ ने श्री कृष्ण से संबंधित लीला क्षेत्रों में उनके स्मृति देवालय बनवाये और उनकी विभिन्न प्रतिमाओं का निर्माण कराया. श्री गोविन्द देव की प्रतिमा भी उन्हीं में से एक थी जो विभिन्न काल अवधि में आदि वृंदावन में अनवरत ग्यारहवीं शताब्दी तक पूजी जाती रही.
यह सिलसिला विदेशी आक्रांताओं के मथुरा क्षेत्र पर आक्रमणों से टूटा और वहाँ की अपार सम्पदा को लूटा जाने लगा और देवालयों को तोड़ा जाने लगा. ऐसे में पुजारी लोगों ने देव मूर्तियों को भविष्य की पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने के इरादे से उन्हें विभिन्न स्थलों पर भूमि के अंदर छिपाना प्रारंभ किया.
लगभग 400- 500 वर्षों तक ये देव मूर्तियां इसी प्रकार विलुप्त रहीं और देव इच्छा से ही पंद्रहवी सदी में रूप, सनातन, बल्लभाचार्य आदि गोस्वामियों के प्रयत्नों तथा उनकी ईशप्रदत्त आंतरिक शक्ति से खोजी जाने लगी. लगभग 1530 ईस्वी में श्री गोविन्द देव जी की प्राचीन सनातन दिव्य त्रिभंगी प्रतिमा श्री रूप गोस्वामी जी को वृंदावन स्थित गोमा टीले से एक के आधार पर प्राप्त हुयी जिसे उन्होंने वहीं एक लघु कुटी में पधराकर पूजा अर्चना प्रारंभ की.
बाद में श्री सनातन गोस्वामी और रूप गोस्वामी तथा उनके भतीजे श्री जीव गोस्वामी की प्रेरणा से तत्कालीन ब्रज के सूबेदार एवं आमेर के राजा मानसिंह ने लाल पत्थरों का सात मंजिला भव्य विराट देवालय उस स्थान पर बनवाया.
श्री जीव गोस्वामी इस मंदिर के प्रथम महन्त बने. इस मंदिर को बनने में 8 से 10 वर्ष का समय लगा और इसे दिल्ली और आमेर के कारीगरों ने बनाया. मंदिर के गवाक्ष पर एक धुंधला सा पत्थर लगा है जिसमें कल्याण दास, माणकचंद, गोविन्द दास और गोरखदास प्रधान शिल्पियों के नाम लिखे हैं और संवत् 1637 लिखा है. अकबर ने श्री गोविन्द जी की गायें चरने के लिए 60 बीघा जमीन का पट्टा जारी किया था. इससे पता चलता है कि मंदिर की अपनी गऊ शाला भी थी.
औरंगजेब के 1669 के फरमान से इस मंदिर को भी ध्वस्त कर दिया गया था. ध्वस्त होने से पूर्व भरतपुर के जाटों ने इसे बचाने का बहुत संघर्ष किया हालांकि बचा नहीं पाये. आमेर के नरेशों ने जो औरंगजेब के दरबारी थे, कोई सशक्त प्रतिरोध नहीं किया जो आश्चर्यजनक था.
जब मंदिर का भंग होना निश्चित हो गया तो पुजारी लोगों ने रातोंरात भगवान गोविन्द को गर्भगृह से निकाल कर ब्रज क्षेत्र से निकल जाना तय किया और छिपते छिपाते वहाँ से निकल गये और विभिन्न स्थानों पर पड़ाव डालते हुये लगभग 35 वर्ष बाद नवनिर्मित जयपुर नगर में पहुंचे और वहाँ राजमहल के सामने के बरामदे में स्थायी रूप से गोविन्द देव को राज संरक्षण में विराजमान कर दिया. आमेर के तत्कालीन राजा सवाई जयसिंह ने अपना जयपुर राज श्री गोविन्द देव जी को समर्पित कर दिया झऔर स्वयं को उनका दीवान कहलाने लगे. यह प्रथा जयपुर के सभी शासकों ने अपनायी. आज श्री गोविन्द जयपुर की जनता के अराध्य हैं और लोग उनके दीवाने हैं.
वृंदावन का गोविन्द देव मंदिर जिसकी चार मंजिलें औरंगजेब ने उतरवा दी थी और नीचे भी बहुत तोड़फोड़ की थी, लगभग दो सौ पचास साल तक खंडहर पड़ा रहा. उसके बाद मथुरा के अंग्रेज कमिश्नर और जयपुर राज ने 1870 में मिलकर इसकी मरम्मत करायी और आसपास से अतिक्रमण और मलबा हटाया. हालांकि श्रद्धालु इसको खंडित मंदिर जान कर अंदर नहीं जाते थे. काफी वर्षों बाद इसके गर्भगृह के बाहरी भाग में श्री राधा गोविन्द की प्रतिमूर्तियें पधराकर पूजा अर्चना शुरू की गयी. हालांकि श्रद्धालु कम और मेरे जैसे इतिहास प्रेमी ही ज्यादा इसमें जाते थे. मुझे याद है जब मैं प्रथम बार शायद 1977-78 में यहाँ मंदिर में आया था तो जूते खोलने लगा तो बाहर बैठे लोगों ने कहा कि जूते पहन कर ही चले जाओ. यह खंडित मंदिर है.
मंदिर बेहद मजबूत, विशाल व कलात्मक है. बड़ा प्रांगण, लहरदार गोलाकार छत और विशाल खंबे इसकी सुंदरता के गवाह हैं. बहुत ऊंची चौकी पर यह मंदिर बना है.
आप लोग अब जब कभी वृंदावन जायें तो इस मंदिर में अवश्य जायें. यह वृंदावन के मुख्य मार्ग पर बांयी ओर रंग जी के मंदिर के सामने है.
व्हाटसअप साभार ------कुमारसंभव-----